यूपी के मदारपुर और बलरामपुर गांव से लाइव रिपोर्ट.अयोध्या से करीब 50 किमी की दूरी पर टांडा तहसील का मदारपुर गांव है। यहां गांव के बाहर आम के बागों में बंबई, अहमदाबाद, रेवाड़ी से आए 25-30 प्रवासी मजदूर क्वारैंटाइन हैं। वे आने के बाद से यहीं बागों में टाट पट्टी का तंबू डालकर और छप्पर बनाकर रह रहे हैं। इन्हें घर वालों ने चारपाई और बिस्तर दे रखा है। घर वाले दोनों टाइम खाना भी पहुंचा देते हैं।
हुआ कुछ यूं कि जब ये लोग दूसरे राज्यों से गांव पहुंचे तो घर की महिलाओं ने उनके आने पर एतराज जताया। उनका कहना था कि इससे उनके बच्चों और बुजुर्गों को खतरा है। कुछ घरों में तो औरतों ने किवाड़ तक बंद कर दिए। जिसके बाद इन प्रवासियों ने गांव से थोड़ा बाहर आम के बाग को ही क्वारैंटाइन सेंटर बना लिया।
रामजस रेवाड़ी से आए हैं। वह यहां एक बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कंपनी में ठेका लेकर काम करते थे। कहते हैं, पहले दो महीने इंतजार किए, जब कुछ नहीं मिला तो पैदल ही निकल पड़ा, करीब 150 किमी पैदल चला। फिर पलवल में पुलिस वालों ने जबरदस्ती एक ट्रक में बैठा दिया, वहां से लखनऊ आए। फिर किसी तरह गांव पहुंचे। अब 8 दिन से यहीं आम के बाग में रह रहे हैं।
रामजस कहते हैं कि गांवों वालों को एतराज था कि हम घर में न जाएं। खासकर, घर की महिलाओं को। घर की औरतों ने तो नाक में दम कर रखा था कि हम बाहर ही रहें। अब बताओ इतनी दूर से ठोकर खाते हुए आए और 8 दिन से यहीं बाग में पड़ा हूं। घर से भाई खाना पहुंचा जाता है। अब तो गांव के लोग कह रहे हैं कि 21 दिन क्वारैंटाइन रहना पड़ेगा। हालांकि बाहर किसी अधिकारी या पुलिस ने ये नहीं बताया था कि हमें घर नहीं जाना है। गांव में लगभग हर घर के लोग बाहर दूसरे शहरोंं में रहते हैं।
- दुर्गेश अहमदाबाद से श्रमिक ट्रेन से आए, लेकिन टिकट का पैसा खुद दिया
दुर्गेश अहमदाबाद में लक्कड़ का काम करते थे। कहते हैं कि मैं श्रमिक ट्रेन से आया, लेकिन टिकट का पैसा खुद दिया हूं। अब सबकुछ ठीक हो जाएगा, तो फिर जाना ही पड़ेगा, क्योंकि यहां तो रोटी रोजगार है नहीं।
राहुल अहमदाबाद में ड्राइवर थे। ट्रक से वापस गांव लौट आए हैं। कहते हैं कि वहां बाइक ट्रांसपोर्टेशन का काम करता। सेठ से पूछता कि आगे काम मिलेगा, तो बोलते- लोगों के पास चावल खाने का पैसा नहीं तो बाइक कौन खरीदेगा। हालांकि पैसा मिल रहा था। अब यहीं 7 दिन से बाग में बसेरा बना लिया है। जब ढाई-तीन महीने परिवार के लिए इतना दूर जा सकते हैं, तो 14 दिन यहां भी ही सकते हैं।
राहुल बताते हैं कि रास्ते में एक-दो जगह स्क्रीनिंग हुई थी, तो सब ठीक था, अब 14 दिन बाद फिर चेकअप करवा लेंगे। लेकिन यहां अभी तक कोई स्वास्थ्यकर्मी तो आया नहीं, न ही किसी से गांव के प्रधान ही मिलने आए हैं।
- बंबई से एक ट्रक में बैठकर 60 मजदूर आए, हर किसी ने तीन-तीन हजार रुपए दिए
जितेंद्र बंबई में धागा का काम करते थे। कहते हैं कि कंपनी बंद हो गई। दो महीने तक हम इंतजार किए, फिर सेठ ने कह दिया अपना देखो। अपना कहां से देखते, जब पैसे ही नहीं तो क्या करते। वहां से ट्रक बुक करके आए हैं। ड्राइवर ने सबसे तीन-तीन हजार रुपए किराया लिया। एक ट्रक में 60 लोग बैठे थे। हम सब एक लाख 80 हजार रुपए दिए।
जितेंद्र बताते हैं कि मध्य प्रदेश तक लंगर खूब लगा था। लेकिन यूपी में कुछ नहीं मिला, वैसे भी, यहां कहां कुछ मिलता है। अब जब तक सब साफसुथरा नहीं हो जाएगा, तब तक कतई नहीं जाएंगे।
- मालिक फैक्टरी के बगल में ही एक हवेली में रहता था, लेकिन फोन ही उठाना बंद कर दिया
मदारपुर गांव के बाहर एक और बाग में 12 लोग रुके हैं। इनमें से एक दुर्गेश मुंबई में रेडिमेड फैक्टरी में काम करते थे। लेकिन अचानक सब बंद हो गया। बंगाल, गुजरात के कुछ लोग भी साथ में काम करते थे। लेकिन वे पहले ही चले गए थे। लॉकडाउन के बाद मालिक को फोन करने लगे तो वो फोन ही नहीं उठाता। मालिक का वहीं बगल में हवेली थी, लेकिन वो झांकने तक नहीं आया।
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एक चेकपोस्ट पर ड्राइवर ने ट्रक के शटर बंद कर दिए, अंदर बैठे 50 लोगों की सांस फूलने लगी
नितिन बंबई से यहां ट्रक से पहुंचे हैं, कहते हैं कि हमारे साथ 50 लोग और थे, एक चेकपोस्ट पर ड्राइवर ने सब शटर बंद कर दिया, अंदर बैठे लोगों की सांस फूलने लगी। एकबार तो ऐसा लगा कि अब जान निकल जाएगी। आधे घंटे बाद खोला तो आंख के सामने अंधेरा था, फिर जान में जान आई। हम सब मौत की मुंह से निकलकर यहां पहुंचे हैं।
- पुलिसवाले कह रहे थे कि गांव में खाने-पीने की व्यवस्था है, लेकिन यहां कुछ नहीं मिला
नितिन के एक साथी कहते हैं कि यहां नमक रोटी तो मिलेगी, वही सुकून है। यहां कोई भाड़ा भी नहीं देना है, वहां 52 दिन से बैठे थे। अब 12 महीने यहां काम मिले तो वहां जाने की जरूरत नहीं पड़ती, यहां सरकार 8 हजार रुपए भी दे तो कभी बंबई नहीं जाएंगे। रास्ते में पुलिसवाले कह रहे थे कि स्कूल में रुक जाना, प्रधान की ओर से खाने-पीने की व्यवस्था होगी, लेकिन यहां कुछ नहीं मिला।
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गांव के प्राथमिक विद्यालय में सिर्फ 5 लोग रुके हैं, मां, बेटियां और पत्नी रोज घर से खाना खिलाने आती हैं
मदारपुर गांव से बाहर एक प्राथमिक विद्यालय में पांच मजदूर रुके हैं। यहां उनके घर वाले खाना लेकर आए हैं। अहमदाबाद से लौटे ड्राइवर उदयभान के लिए मां घर से खाना लेकर आई हैं। अवधी भाषा में कहती हैं, 'जेरा(दिल) नाय मानत रहा, हींआ आई-कय तनकी बोल-बताइए लेईत है, तो तोख(संतोष) होई जात है। यही बेटवा हमय खर्चा-वर्चा देत रहिन। जब से ई-सब भय, तब से रोज रोअत रहिन, रोज पूछित भईया कब अईबा, ई बोलत रहिन जल्दी आइब अम्मा। जब इनका देख लेह तब जाइकय तोख मिला।'
अहमदाबाद से आए सदाराम कहते हैं कि 8 दिन से ही स्कूल में ही रुके हैं। यहां प्रशासन या प्रधान से कुछ नहीं मिला है। घर से खाना आता है। सैनिटाइजर भी अपने पैसे से लिए थे। एक पंखा लगा है, वह भी धीरे-धीरे चल रहा है। कहते हैं कि अब नमक-रोटी खा लेंगे, लेकिन वहां दोबारा नहीं जाएंगे।
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बलरामपुर गांव में अगड़ी जाति के लोग भी बाहर से आए हैं, लेकिन वे स्कूल में नहीं रुके, हम हरिजन ही बस यहां हैं
बलरामपुर गांव में स्थित प्राथमिक विद्यालय में आठ लोग रुके हैं, वे सभी बंबई और अहमादाबाद से आए हैं। आज कल ताश खेलकर टाइम काट रहे हैं। राजाबाबू, धीरेंद्र और महेंद्र अहमदाबाद में बेगारी (लेबर) का काम करते थे। कहते हैं कि वहां दो महीने से बैठे थे, अब जहां काम मिल जाता था, वहां कर लेते थे। यहां स्कूल में सिर्फ हरिजन लोग ही रुके हैं। गांव के पंडित, वर्मा के बाहर लोग भी रहते हैं, वो भी गांव आए होंगे, लेकिन एक भी लोग यहां नहीं आए।
स्कूल में रुके मजदूर कहते हैं कि यहां सिर्फ हमारी जाति(हरिजन) के लोग ही हैं। स्कूल में स्वास्थ्य विभाग या प्रधान की ओर से कुछ भी व्यवस्था नहीं है। चाय-नाश्ता यहीं बनाते हैं, खाना-पानी घर से आ जाता है। चारपाई-बिस्तर भी घर वाले दे गए हैं। पुलिसवालों ने कहा था कि स्कूल में व्यवस्था होगी, लेकिन यहां आने पर कुछ मिला नहीं। होम क्वारैंटाइन भी हो सकते थे, लेकिन घर जाने के बजाय स्कूल में ही रुक गए। ताकि घर वाले सुरक्षित रहें।
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प्रधान कह रहे थे कि सब घर चले जाओ, जो होगा हम देख लेंगे, लेकिन परिवार की वजह से रुक गए
बलरामपुर स्कूल में रुके मजदूर कहते हैं कि प्रधान तो कह रहे थे कि सब अपने-अपने घर चले जाओ, कुछ नहीं होगा। जिसको जो कहना होगा, उससे बोलना कि हमसे बात करेगा। हमें रास्ते में पुलिस वालों ने पर्चा दिया था, हम लोग खुद ही उसे यहां गेट पर अपना नाम लिखकर चिपका दिए।
सभी कहते हैं कि अब दोबारा जब सबकुछ ठीक हो जाएगा, तभी वहां जाएंगे। वैसे, वहां जाने से ज्यादा कुछ तो फायदा नहीं है, लेकिन यहां गांव में कुछ करेंगे, तो लोग हरिजन समझकर लोग कुछ लेते ही नहीं। कम से मुंबई ये तो कोई नहीं मानता, न कोई हमें पहचानता है।
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