बीते कुछ दिनों से इंडिया की व्हीलचेयर क्रिकेट टीम के कप्तान रहे राजेंद्र सिंह धामी की एक फोटो वायरल हो रही है। इसमें वे पत्थर तोड़ते हुए नजर आ रहे हैं। मीडिया में खबरें लगी हैं कि पूर्व कप्तान पत्थर तोड़कर पेट पालने को मजबूर हैं। उनके पास कोई काम-धंधा नहीं। राजेंद्र सिंह ने हमसे बात करते हुए कहा कि दिक्कत मेरे रोजगार की नहीं है, बल्कि मेरे गांव के हालात की हैं। पढ़ें ये रिपोर्ट।
50-60 लोग गांव में रहते हैं, इलाज करवाने कंधों पर लेकर जाना पड़ता है
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में रायकोट गांव आता है। यह भारत-नेपाल बॉर्डर से एकदम सटा हुआ है। नदी के एक तरफ भारत है और दूसरी तरफ नेपाल है। गांव में महज 10 से 12 परिवार हैं, कुल मिलाकर 50-60 लोग रहने वाले हैं, लेकिन किसी के पास कुछ काम नहीं है। खेती इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि जंगली जानवर बहुत बड़ी संख्या में है, वो फसल बर्बाद कर देते हैं।
छोटा सा गांव है और रोजगार का कोई जरिया नहीं है। राजेंद्र सिंह कहते हैं, मैं तो सालों से मजदूरी कर रहा हूं। अभी फोटो छपी है, लेकिन मेरे लिए यह कोई नई बात नहीं है। मैंने एमए-बीएड किया है। पहले प्राइवेट स्कूल में टीचिंग भी की लेकिन, तब भी मजदूरी तो कर ही रहा था क्योंकि घर में एक छोटा भाई, मां-पापा और पत्नी हैं। अब पांच लोगों के परिवार को तो पालना ही है।
मैं 2014 से क्रिकेट से जुड़ा था। लेकिन, हमें कोई फिक्स पैसे नहीं मिलते थे बल्कि स्पॉन्सर ढूंढना होते थे। स्पॉन्सर मिल जाते थे तो थोड़े-बहुत पैसे मिल जाते थे, लेकिन लॉकडाउन लगने के बाद से वो काम भी पूरी तरह से बंद हो गया। दस दिन पहले ही गांव में मनरेगा का काम खुला है, तो सब लड़के अब इसमें ही काम कर रहे हैं।
वरना गांव में तो खाने-पीने तक की दिक्कत हो गई है। हालात ऐसे हैं कि हमें बैंक से पैसे निकालने बहुत दूर जाना पड़ता है। आने-जाने में एक दिन और 200 रुपए खर्च हो जाते हैं। हमारे गांव में किराने की दुकान भी नहीं है। पास के गांव में किराना लेने जाते हैं। गांव में किसी के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो दुकान खोल ले।
रायकोट के ही दीपक सिंह ने बताया कि एक भी पक्की सड़क हमारे गांव में नहीं है। सरकारी स्कूल है, लेकिन न वहां टीचर हैं और न ही बैठने की व्यवस्था। सर्दी-खांसी की दवाई तो गांव में मिल जाती है लेकिन इससे ज्यादा के लिए पिथौरागढ़ जाना पड़ता है, जहां पहुंचने में हमारे गांव से तीन से चार घंटे का समय लग जाता है।
हमारे गांव तक गाड़ी नहीं आ सकती इसलिए मरीज को कंधों पर उठाकर पास के गांव तक ले जाते हैं , तब जाकर कहीं गाड़ी मिल पाती है। जब लॉकडाउन नहीं लगा था, तब यहां नेपाल के लोग आ रहे थे। वो भी काम- धंधे की तलाश में घूमते रहते हैं। कहीं कुछ मिल जाए तो कम पैसों में भी कर लेते हैं। रायकोट के तो अधिकतर लड़के बाहर काम करते हैं।
कोई राजस्थान, कोई मुंबई तो कोई गुजरात में काम करता है, लेकिन कोरोना के बाद से सभी लड़के गांव में ही हैं और अब करने को कुछ नहीं है।
राजेंद्र सिंह की मीडिया में खबरें छपी तो उनसे मिलने विधायक भी पहुंचे और प्रशासन के अधिकारी भी आए लेकिन अभी तक कोई बड़ी मदद मिल नहीं सकी है। विधायक ने सड़क बनवाने का भरोसा दिलाया है। प्रशासन से 20 हजार रुपए की मदद मिली है। सोनू सूद ने 11 हजार रुपए की मदद भेजी है। इन पैसों से काफी मदद मिली।
राजेंद्र कहते हैं, मेरे बहाने मेरे गांव में सड़क ही बन जाए तो हमें बहुत बड़ा सहारा मिल जाएगा। कम से कम गाड़ियों का आना-जाना शुरू हो जाएगा। हॉस्पिटल से स्कूल जाने तक में आसानी होगी। गांव के ललित सिंह ने बताया कि हम लोग होटल लाइन में काम करते थे। मैं माउंट आबू की एक होटल में था लेकिन कोरोना के बाद मार्च में ही हम सब गांव आ गए थे।
अभी मनरेगा में 400 रुपए रोजाना की मजदूरी मिलती है। यह काम 10-12 दिन पहले ही शुरू हुआ है। कब तक चलेगा, कह नहीं सकते।
2 साल की उम्र में पोलियो का शिकार हो गए थे
राजेंद्र सिंह 2 साल के थे, तब पोलियो का शिकार हो गए थे। इसके बाद से ही उनके दोनों पैरों ने काम करना बंद कर दिया। ऊपर की बॉडी ठीक है। फेसबुक से उन्हें व्हीलचेयर क्रिकेट के बारे में पता चला तो 2014 में लखनऊ में हुए एक कॉम्पीटिशन में गए। इसके बाद से ही क्रिकेट खेलते हैं।
दो साल इंडिया को रिप्रजेंट किया और उस दौरान नेपाल और बांग्लादेश की टीमों के साथ मैच हुए। अभी वो उत्तराखंड व्हीलचेयर क्रिकेट टीम के कप्तान हैं। कहते हैं कि मैं ऑलराउंडर हूं। यदि फ्यूचर में मौका मिलेगा तो और खेलना चाहता हूं। मेरे बहाने सरकार गांव में सड़क ही बना दे तो बहुत बड़ी मदद होगी।
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