क्या कारण है कि दुनिया की प्राचीन से प्राचीनतम संस्कृतियां- यूनान, रोम, मिस्र, मेसोपोटामिया सब विलुप्त हो गईं, लेकिन भारतीय संस्कृति-सभ्यता सात हजार सालों से सुरक्षित है। हम आज भी उन परंपराओं का पालन करते आ रहे हैं, जो हमारे पूर्वज पालन करते थे। श्रीरुद्रम वेदों में लिखा गया है, आज भी शिवभक्त श्रीरुदम का जाप करते हैं। पुरुषसूक्त ऋग्वेद मेें है, आज भी वैष्णवपंथी लोग उसका जाप करते हैं।
विदेशों में एक शास्त्र या किताब को सर्वोपरि माना गया। हमारे यहां भी आधुनिक परिवेश में शास्त्रों को लोककथाओं से ज्यादा दर्जा दिया जा रहा है। लेकिन हमारी परंपरा ऐसी नहीं रही है। हम हमेशा से ही अपनी प्राचीन कहानियों-लोककहानियों को इज्जत देते आए हैं। उन प्राचीन कहानियों में हमारा मन रमा हुआ है।
इसका एक उदाहरण देखिए- पिछले दिनों लॉकडाउन में रामानंद सागर की 33 साल पुरानी रामायाण का पुन:प्रसारण हुआ। इसे 8 करोड़ लोगों ने देखा, इतने दर्शक तो दुनिया की सबसे बड़ी सीरिज गेम ऑफ थ्रोन्स को भी नहीं मिले। इन प्राचीन कथानकों के प्रति हमारा प्रेम दर्शाता है कि हमें अपनी कहानियों से कितना लगाव है।
संस्कृति-सभ्यता, जीने का रहन-सहन, बातचीत का तरीका, हमारी कहानियां, संगीत, कलाएं, नाट्य यही सब एकजुट होकर सभ्यता और संस्कृति बनाते हैं। हमारी संस्कृति कितनी समृद्ध है इसका एक और उदाहरण द नेशनल मिशन ऑफ मैनुस्क्रिप्टस के एक तथ्य में मिलता है।
हमें बताया गया था कि हमारी संस्कृति मौखिक थी, पूर्वज लिखते नहीं थे, जबकि प्राचीन बुकलेट्स में इसका जिक्र है कि हमारे देश में 30 से 35 लाख लिखित प्राचीन संस्कृत पांडुलिपियां हैं। पूरी दुनिया में सबको मिलाकर भी इतनी तादाद में प्राचीन पांडुलिपियां नहीं है।
आज की कई परेशानियों का हल हमारी परंपराओं में है। हम सैकड़ों सालों से एकादशी का व्रत करते आ रहे हैं, अब पश्चिमी विश्वविद्यालय व्रतों को शरीर के लिए फायदेमंद बता रहे हैं। कोरोना के कारण बार-बार हाथ धोने पर जोर दिया जा रहा है, लेकिन घर के अंदर प्रवेश करते ही हाथ-पैर धोने की हमारी परंपरा रही है।
आज पूरी दुनिया में लोग योग कर रहे हैं। लेकिन हमारी विडंबना है, खासतौर पर उस पढ़े-लिखे तबके की, जो तब तक चीज़ों पर विश्वास नहीं करती। जब तक कि पश्चिमी देश उस पर ठप्पा नहीं लगा देते। परेशानियां हैं तो हमारी संस्कृति और परंपराओं में उनका इलाज भी है।
भारतीय संस्कृति हमेशा से उदार रही है। यहां अभिव्यक्ति की आजादी है। इसके बारे में नाट्यशास्त्र में भी साफ लिखा हुआ है। वैदिक संस्कृत में ब्लासफेमी (ईशनिंदा) जैसा शब्द ही नहीं है, क्योंकि हमारे यहां ऐसी कोई अवधारणा ही नहीं रही।
आज महिलाओं के हक के लिए पैरवी करने को पश्चिमी प्रोपोगेंडा करार दिया जाता है, लेकिन हमारे यहां ऋषियों के साथ-साथ ऋषिकाएं भी थीं। वेदों में कई सूक्त ऐसे हैं, जिन्हें ऋषिकाओं ने लिखा है। इन्हें फीमेल प्रोफेट(ईश्वर के दूत) कह सकते हैं, लेकिन इनकी कल्पना तक विदेशों में नहीं है।
हमारी कई स्मृतियों में लिखा गया है कि जिस देश में महिलाओं की इज्जत नहीं होती, उस राज्य को भगवान भी त्याग देते हैं। वहां पूजा-पाठ का कोई लाभ नहीं मिलता। हम जितना अपनी संस्कृति को पढ़ेंगे, जानेंगे तभी समझ आएगा कि हमारी परंपराएं क्या हैं।
आज के समय में संस्कृति को करीब से जानना और जरूरी हो गया है। सोशल मीडिया पर इतना शोर-शराबा है, ऐसे में जरूरी हो जाता है कि सच को प्रेम से रखा जाए। मेरा मानना है कि शोर-शराबा करने वालों की संख्या बहुत कम है। लेकिन बढ़ावा इन लोगों को ज्यादा दिया जा रहा है।
जरूरी है कि हम किसी परिचर्चा में शामिल हों, लेकिन अपनी बात प्रेम और इज्जत के साथ रखें। सोशल मीडिया के कारण आज लोगों के एकाग्र रहने का समय भी बहुत कम हो गया है। लोग बिना सोचे-समझे जवाब दे रहे हैं।
नाट्यशास्त्र में लिखा गया है कि तीर के वार से ज्यादा कठोर जुबान से निकले हुए शब्द होते हैं। तीर की तरह शब्द निकल गए तो निकल गए। कुछ भी कहने से पहले 10 तक गिनती करना चाहिए। आराम से सांसें लीजिए, सोच लीजिए फिर बोलिए। अगर कुछ बोलना है तो शांति से बोलिए, सोच-समझकर बोलिए।
आज बच्चों की अच्छी परवरिश भी एक बड़ा मुद्दा है। अच्छी परवरिश का जवाब भी हमारे इतिहास में है। चाणक्य नीति में कहा गया है कि बच्चों को 5 साल तक बेइंतहा प्यार दीजिए। उन्हें इतना प्रेम दीजिए कि उनके मन में कोई कॉम्लेक्स ही न आए।
5 से 16 साल की आयु तक आप उनके साथ बिल्कुल अनुशासित हो जाइए, ताकि तौर-तरीके ठीक से सीखें। 15-16 की उम्र के बाद आप उनके मित्र बन जाइए। क्योंकि उस उम्र केे बाद बदलाव नहीं आते। आप उनके मित्र बन जाएंगे तो वो आपसे कोई सीक्रेट नहीं रखेगा।
बच्चों के पालन-पोषण का यही सबसे तरीका है। सुबह 5 बजे उठना है, मतलब उठना है, रात में साढ़े 10 तक सोना ही है। आज भी मैं उस अनुशासन का पालन करता हूं। अच्छी परवरिश का यही तरीका है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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