कमर कस लीजिए। जब हम कोरोना संकट से निकलेंगे तो ऐसे रचनात्मक रूप से विध्वंसक दौर का सामना करना होगा, जिसे यह महामारी तेजी से ला रही है और अभी छिपा रही है। नौकरी, स्कूल, कॉलेज, फैक्टरी, ऑफिस, कोई इससे अछूता नहीं रहेगा।
ऐसा इसलिए होगा क्योंकि इससे पहले कभी भी इतने सारे लोगों की इनोवेशन के इतने सस्ते साधनों, सस्ती व शक्तिशाली कम्प्यूटिंग और नए उत्पादों और सेवाओं के लिए लोन तक पहुंच नहीं रही। आप कुछ चौंकाने वाली चीजों को उभरते हुए, यूनिवर्सिटी जैसे स्थापित संस्थानों को गायब होते हुए और कार्यस्थलों में काम की प्रकृति बदलते हुए देखेंगे।
मैं भारतीय टेक कंपनी इंफोसिस के प्रेसीडेंट रवि कुमार से इस पल की चर्चा कर रहा था। चूंकि इंफोसिस कंपनियों को डिजिटल दुनिया के लिए तैयार करती है, इसलिए मुझे वह हमेशा ही वैश्विक रोजगार और शिक्षा के ट्रेंड पर जानकारी का अच्छा स्रोत लगती है।
रवि कुमार समझाते हैं कि औद्योगिक क्रांति ने ऐसी दुनिया बनाई जहां नियोक्ता और कर्मचारी, शिक्षाविद् तथा नियोक्ता और सरकार तथा नियोक्ता के बीच काफी दूरी थी। अब यह अंतर मिट रहा है। क्योंकि जिस तेजी से तकनीकी बदलाव, डिजिटाइजेशन और वैश्वीकरण हो रहा है, उससे दो चीजें एक साथ हो रही हैं।
पहली, दुनिया तेजी से बहुत करीब हो रही है और दूसरी कौशलों की उम्र कम हो रही है। यानी जो भी कौशल आज आप में है, जल्द उसकी उपयोगिता खत्म हो जाएगी। आपके बच्चे अपने जीवन में कई नौकरियां बदलेंगे, जिसका मतलब है कि उनके करिअर अब ‘काम के लिए सीखो’ के रास्ते नहीं चलेगा, बल्कि ‘काम करो-सीखो-काम करो-सीखो’ के रास्ते पर चलेगा। इसलिए स्कूली शिक्षकों की सबसे बड़ी भूमिका यह होगी कि वे युवाओं में सीखने के प्रति जिज्ञासा और जुनून पैदा करें।
इस सबके साथ कुमार बताते हैं कि डिजिटाइजेशन और वैश्वीकरण के बढ़ने से काम तथा कंपनियां और नौकरी तथा काम एक-दूसरे से अलग होते जाएंगे। कुछ काम मशीन करेंगी, कुछ ऑफिस या फैक्टरी में होगा, कुछ काम घर बैठे होंगे, तो कुछ ऐसे काम होंगे जो सिर्फ एक टास्क होगा। जिसे कोई भी, कहीं से भी कर सकेगा। इससे काम या नौकरी के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ जाएगी।
कुमार अब न्यूयॉर्क से काम करते हैं, क्योंकि उन्हें यहां अमेरिकी कंपनियों को इस दुनिया के लिए तैयार करने और उनके लिए कौशल वाले संभावित नए कर्मचारियों की पहचान करने में बड़ा बाजार नजर आता है। हर बड़ी कंपनी इस दौर से गुजर रही है या गुजरेगी।
इन सब का शिक्षा पर पहले ही असर पड़ने लगा है। कुमार बताते हैं, ‘हमने पहले ही बिना डिग्री वाले लोगों को नौकरी पर रखना शुरू कर दिया है। अगर आपको काम आता है और आप दिखा सकते हैं कि आप अपना काम जानते हैं तो आपको नौकरी मिल जाएगी। डिग्री से कौशल की ओर यह बदलाव डिजिटल बंटवारे को कम कर सकता है, क्योंकि पिछले 20 सालों में अंडर ग्रैजुएट की पढ़ाई का खर्च 150% तक बढ़ गया है।’
इंफोसिस अब भी इंजीनियर्स को नौकरी देता है, लेकिन कुमार सिर्फ ‘समस्या सुलझाने वाले’ नहीं, बल्कि ‘समस्या ढूंढने वाले’ तलाश रहे हैं। अब आपको नया सॉफ्टवेयर बनाने के लिए कोडिंग सीखने की जरूरत नहीं है। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) को निर्देश दीजिए वह एप्लीकेशन बना देगी।
कुमार बताते हैं कि अब सॉफ्टवेयर का लोकतंत्रीकरण हो रहा है। उपभोक्ता भी निर्माता बन सकते हैं। यह बताता है कि एआई भूतकाल की नौकरियां खत्म कर रही है और भविष्य की नौकरियां बना रही है। अंतत: वे तर्क देते हैं कि भविष्य में सेकंडरी के बाद की शिक्षा, कंपनी प्लेटफॉर्म्स, कॉलेजों व स्कूलों का मिश्रण होगी, जिसका उद्देश्य ‘रैडिकल रिस्किलिंग’ (तार्किक रूप से नए कौशल सीखते रहना) के अवसर पैदा करना होगा। उदाहरण के लिए मैं एक एयरलाइन काउंटर एजेंट को लेकर उसे डेटा कंसल्टेंट बना सकता हूं।
भविष्य में जीवनभर सीखते रहना ‘जटिल अनुकूलनीय गठबंधन’ के जरिए होगा। इंफोसिस, माइक्रोसॉफ्ट या आईबीएम जैसी कंपनियां विभिन्न यूनिवर्सिटी और स्कूलों से साझेदारी करेंगी। सभी जगह सीखना, कमाना और काम करना एक साथ होगा। कंपनियों के खुद के इन-हाउस यूनिवर्सिटी होंगे।
जैसे इंफोसिस इंडियानापोलिस में 100 एकड़ का कैंपस बना रही है, जहां उनके कर्मचारी और ग्राहक समय की मांग के मुताबिक चीजें सीख सकेंगे। यानी छात्र कॉर्पोरेशन की इन-हाउस यूनिवर्सिटी में कोई नया कोर्स या इंटर्नशिप कर सकेंगे और किसी कंपनी का कर्मचारी ह्यूमैनिटीज की पढ़ाई किसी बाहरी यूनिवर्सिटी से कर सकेगा।
अगर यह सब सही ढंग से किया जाए तो संभावनाएं असीम हैं। छात्रों को वह मिलेगा जो इनोवेशन और तकनीक के मामले में सबसे नया है। और कंपनी के इंजीनियर और एक्जीक्यूटिव सबसे टिकाऊ चीजें जैसे नागरिक शास्त्र, नैतिक शास्त्र, न्याय का सिद्धांत, लोकतंत्र का सिद्धांत, जनहित की धारणा, पर्यावरणवाद और जीवन के उद्देश्य आदि के बारे में पढ़ सकेंगे। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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