सुप्रीम कोर्ट ने सभी नागरिकों के लिए तलाक और गुजारा भत्ता के लिए समान आधार को लेकर दायर याचिकाओं पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि देश में अलग-अलग धर्मों की महिलाओं के लिए तलाक के आधार अलग हैं। उनके गुजारा भत्ते को लेकर भी अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग नियम है। ये सामान्य मानवाधिकारों का उल्लंघन है।
तलाक और गुजारा भत्ता का समान अधार होने की याचिका दायर किसने की है? याचिका दायर करने वालों का क्या दावा है? कोर्ट का क्या कहना है? अलग-अलग धर्मों में तलाक और गुजारा भत्ता को लेकर क्या कहा गया है? यूनिफॉर्म सिविल कोड क्या कहता है? इसे लागू करने में परेशानी क्या है? आइये जानते हैं…
मुद्दा क्या है?
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कोर्ट में पिटीशन भले सभी धर्मों में तलाक और गुजारा भत्ता समान करने को लेकर लगी हो, लेकिन मामला कॉमन सिविल कोड का है। देश में अलग-अलग धर्मों में शादी, जमीन, जायदाद पर उत्तराधिकार, एडॉप्शन, तलाक और मेंटेनेंस को लेकर अलग-अलग तरह के मोटे तौर पर पांच कानून हैं। मोटे तौर पर इसलिए, क्योंकि आदिवासियों, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड के लोगों के लिए इसमें इन कानूनों से अलग भी रियायतें हैं।
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हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन धर्म के लोगों पर हिंदू मैरिज एक्ट 1955 और हिंदू एडॉप्शन एंड मेंटेनेंस एक्ट 1956 के तहत तलाक और गुजारा भत्ता मिलता है। मुसलमानों के मामले वैध विवाह और निकाह से पहले हुए समझौते की स्थिति के मुताबिक निपटाए जाते हैं और उन पर मुस्लिम महिला कानून 1986 लागू होता है। ईसाई भारतीय तलाक कानून 1869 और पारसी लोगों पर पारसी विवाह व तलाक कानून 1936 लागू होता है। जब दो अलग-अलग धर्मों के लड़का-लड़की शादी करते हैं, तो तलाक से जुड़े मामलों के लिए स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 है।
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याचिका में इन्हीं अलग-अलग कानूनों में एक हिस्से के रूप में शामिल तलाक और गुजारा भत्ता को समान करने की मांग की गई है। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि तलाक के लिए कॉमन ग्राउंड और समान गुजारा भत्ता धर्म नहीं, बल्कि मानवाधिकार का मामला है।
याचिकाकर्ताओं की क्या मांग है?
जनहित याचिका एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय ने दायर की है। उपाध्याय भाजपा से भी जुड़े रहे हैं। याचिका में कहा गया है कि देश के सभी नागरिकों के लिए तलाक और गुजारा भत्ते का समान आधार होना चाहिए। कोर्ट में सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की वकील ने कहा कि स्टेट को संविधान के तहत कुछ अधिकार और सम्मान सुनिश्चित करने होते हैं। अगर किसी धार्मिक अधिकार से अधिकारों का हनन हो रहा है, तो स्टेट को इसके लिए कदम उठाने चाहिए।
याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
चीफ जस्टिस एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली बेंच ने सुनवाई के दौरान कहा कि कोर्ट बड़ी ही सावधानी के साथ नोटिस जारी कर रहा है। कोर्ट ने यह भी कहा कि पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप किए बिना भेदभावपूर्ण प्रथाओं को कोर्ट कैसे हटा सकती है? आप कैसे तय करेंगे कि क्या अपनाया जाए, जो हिंदू, इस्लाम या ईसाई धर्म में है?
सरकार को कब तक जवाब देना है?
सरकार को जवाब देने के लिए कोई तारीख कोर्ट ने तय नहीं की है। इस बारे में याचिका दायर करने वाले एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय कहते हैं कि सामान्य तौर पर सरकार को एक महीने के भीतर जवाब देना होता है। मैंने अपनी ओर से दायर याचिका और कोर्ट का आदेश सरकार को मेल कर दिया है। उम्मीद है सरकार इस पर जल्द जवाब देगी।
अलग-अलग धर्मों में तलाक का क्या आधार है?
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सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले अश्विनी उपाध्याय ने भास्कर से कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में चार निकाह करने की छूट है, लेकिन अन्य धर्मों में 'एक पति-एक पत्नी' का नियम बहुत कड़ाई से लागू है।
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बांझपन या नपुंसकता जैसा कारण होने पर भी हिंदू, ईसाई, पारसी के लिए दूसरा विवाह अपराध है और भारतीय दंड संहिता की धारा 494 में 7 वर्ष की सजा का प्रावधान है इसीलिए कई लोग दूसरा विवाह करने के लिए मुस्लिम धर्म अपना लेते हैं।
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उपाध्याय कहते हैं कि भारत जैसे सेक्युलर देश में चार निकाह जायज हैं, जबकि इस्लामिक देश पाकिस्तान में पहली बीवी की इजाजत के बिना शौहर दूसरा निकाह नहीं कर सकता है।
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तलाक-ए-हसन और तलाक-ए-अहसन में भी तलाक का आधार बताने की बाध्यता नहीं है। केवल 3 महीने इंतजार करना है। वहीं, अन्य धर्मों में केवल कोर्ट के जरिए ही शादियां टूट सकती हैं।
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तलाक का आधार सबके लिए एक समान नहीं है। व्यभिचार के आधार पर मुस्लिम अपनी बीवी को तलाक दे सकता है, लेकिन बीवी अपने शौहर को तलाक नहीं दे सकती। हिंदू पारसी और ईसाई धर्म में तो व्यभिचार तलाक का ग्राउंड ही नहीं है।
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कोढ़ जैसी लाइलाज बीमारी के आधार पर हिंदू और ईसाई धर्म में तलाक हो सकता है, लेकिन पारसी और मुस्लिम धर्म में नहीं। कम उम्र में विवाह के आधार पर हिंदू धर्म में विवाह टूट सकता है, लेकिन पारसी, ईसाई और मुस्लिम में यह संभव नहीं है।
अश्विनी उपाध्याय का दावा है कि ये सभी विषय मानव अधिकार से जुड़े हुए हैं। इनका धर्म या मजहब से कोई संबंध नहीं है। आजादी के 73 साल बाद भी धर्म-मजहब के नाम पर भेदभाव हो रहा है। उनका कहना है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 से 'कॉमन सिविल लॉ' की कल्पना की थी ताकि सबको समान अधिकार मिले। लेकिन, वोटबैंक की राजनीति के कारण भारतीय नागरिक संहिता आजतक लागू नहीं किया गया।
यूनिफॉर्म सिविल कोड क्या कहता है?
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संविधान के आर्टिकल-44 में यूनिफॉर्म सिविल कोड की चर्चा की गई है। इसमें कहा गया है कि राज्य देश के हर नागरिक के लिए एक समान कानून लागू करने की कोशिश करेगा। हालांकि, ये कोशिश आज तक सफल नहीं हो सकी है।
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यूनिफॉर्म सिविल कोड का मतलब है कि देश के हर नागरिक पर एक कानून लागू होगा। देश में शादी से लेकर तलाक, गुजारा भत्ता से लेकर बच्चों को गोद लेने तक के नियम एक जैसे होंगे। लेकिन, अभी देश में ऐसा नही हैं।
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कहीं जायदाद में लड़कियों को हिस्सा नहीं दिया जाता। कहीं तलाक लेने से पहले एक साल समझौते के लिए रखा जाता है तो कहीं दो साल। याचिकाकर्ता इसे ही मानवाधिकारों से जोड़कर कोर्ट में चुनौती दे रहे हैं।
गोवा देश से अलग क्यों है?
देश में गोवा इकलौता राज्य है, जहां यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू है। 1961 में जब गोवा आजाद हुआ, तब से ही यहां यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू है।
यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने में परेशानी क्या है?
मोदी सरकार के ही लॉ कमीशन ने 2018 में कहा कि इसकी जरूरत नहीं है। कमीशन ने कहा कि इसकी जगह निजी कानूनों को मजबूत करने की जरूरत है। दो साल से इसी लॉ कमीशन में कोई चेयरमैन नहीं है। कहा जाता है कि इसे लागू करने से समाज में अलगाव होगा। इसका विरोध करने वाले कहते हैं कि जब संविधान ने ही मेघालय, मिजोरम, नगालैंड जैसे राज्यों के लोकल कस्टम को मान्यता दी है तो उनका क्या होगा?
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