दैनिक भास्कर के जर्नलिस्ट बंबई से बनारस के सफर पर निकले हैं। उन्हीं रास्तों पर जहां से लाखों लोग अपने-अपने गांवों की ओर चल पड़े हैं। नंगे पैर, पैदल, साइकिल, ट्रकों पर और गाड़ियों में भरकर। हर हाल में वे घर जाना चाहते हैं, आखिर मुश्किल वक्त में हम घर ही तो जाते हैं। हम उन्हीं रास्तों की जिंदा कहानियां आप तक ला रहे हैं। पढ़ते रहिए...
15वीं रिपोर्ट, मल्लाह आबादी के गांव कैथी से:
कुलदीप निषाद उर्फ कल्लू और पप्पू निषाद उर्फ भेड़ा गंगा किनारे अलग-अलग नाव पर क्वारैंटाइन किये गए हैं। दोनों गुजरात के मेहसाणा से लौटे हैं। गांव प्रधान अजय यादव के मुताबिक दोनों गन्ने के जूस की दुकान पर काम करते थे। लॉकडाउन की वजह से इनकी नौकरी छिन गई, तो अहमदाबाद से पहले गाजीपुर आये और फिर वहां से वाराणसी।
गुजरात से अपने गांव आये कल्लू उर्फ कुलदीप निषाद कहते हैं कि उनकी 22 दिन की 6 हजार पगार जूस सेंटर के मालिक ने नहीं दी और अब शहर से लौटने के बाद उन्हें इस नांव पर रहना पड़ रहा है।
गंगा नदी पर बने पीपे के पुल पर पर कुछ बरतन नजर आए। पूछने पर कल्लू ने कहा, वह मेरे बरतन हैं। मैं पीपा पर ही गोहरी लगाकर अपना खाना बनाता हूं और उस पर ही खाना भी खाता हूं। रात में अपनी नाव में आ जाता हूंऔर कभी कभार नाव को गंगा नदी में कुछ दूर ले जाकर मन बहला लेता हूं।
वैसे कल्लू की पहले महेसाणा और बाद में वाराणसी में थर्मल स्क्रीनिंग हुई है। उसकी मेडिकल रिपोर्ट नॉर्मल है। कल्लू की तरह पप्पू निषाद भी नाव में क्वारैंटाइन हैं। कहते हैं, महेसाणा में दाल-रोटी के लिए मर रहा था। यहां गांव में परिवार और गांव के लोग मदद कर देते हैं। सरकार भी कुछ न कुछ तो हम मल्लाहों को देगी ही ना?
दो घंटे पहले मुंबई से आए एक 40 वर्षीय व्यक्ति को प्रशासन वाले लोग लेकर गए हैं। बताया जा रहा है कि वह कोविड-19 का मरीज है। स्थानीय पुलिस ने उसके पूरे मोहल्ले को सील कर दिया है। इस मोहल्ले में लगभग 100 घर हैं। मोहल्ले के मुहाने पर खड़े झब्बन बताते हैं कि गांव में लगभग 150 लोग मुंबई और दूसरे राज्यों से आए हैं। लोगों ने अपने आपको खुद से ही क्वारैंटाइन किया है।
गांव के झम्मन यादव बताते हैं कि सरकार ने क्वारैंटाइन की ठीक व्यवस्था नहीं की है। सरकार की व्यवस्था पर लोगों को यकीन नहीं है। बल्कि वे सोचते हैं कि सरकार के बनाए क्वारैंटाइन सेंटर्स में उन्हें उल्टे और कोरोना हो जाएगा। इसलिए जिसे जहां जैसा समझ आ रहा है वो वहां रह रहा है। परिवार बाहर से आनेवालों को रख भी नहीं रहे हैं और ये लोग भी परिवार से दूर भाग रहे हैं।
झम्मन बताते हैं कि टीवी ने मुंबई से गांव आने वालों के खिलाफ ऐसा माहौल बना दिया है कि गांव वाले भी नहीं चाहते कि वे लोग गांव में रहें। इसलिए खेत खलिहानों और घाटों पर रह रहे हैं।
कैथी गांव गंगा-गोमती के संगम पर बसा है। यहां ज्यादातर आबादी मल्लाह यानी मछुआरों की है। यूं तो यह गांव मार्कण्डेय महादेव मंदिर की वजह से भी मशहूर है। हमारे ड्राइवर राजू जब बनारस की घुमावदार गलियों से होते हुए इस गांव में हमें लेकर आए तो गाड़ी पर महाराष्ट्र का नंबर देखकर लोगों की निगाहें हमें घूरे जा रही थीं। गांव में मुंबई के मानखुर्द से आए 40 वर्षीय ओमप्रकाश राजभर कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं।
गांव के मल्लाहों में 45 वर्षीय गोधन निषाद काफी सम्मानित व्यक्ति माने जाते हैं। वे कहते हैं, हमारे गांव में कोरोना महामारी से पहले करीब छह-सात क्विंटल मछली रोजाना पकड़कर बेची जाती थी। इस गांव के लगभग 80 निषाद परिवार के पास कुल 100 नाव गंगा में हैं। अब गांव में बड़ी संख्या में लोग पलायन करके आ रहे हैं। यदि सरकार मछुआरों को मदद के लिए इस लॉकडाउन के संकट में आगे आती है, तो नयी पीढ़ी के लोग भी इस ओर आकर्षित होंगे और गांव के मल्लाहों का पलायन रूकेगा।
इस गांव से थोड़ा बाहर कैथी घाट बनाने का काम चल रहा है। आगरा के रहने वाले संजीत सिंह वहीं पास में चार लोगों के साथ फूस की झोपड़ी में रह रहे हैं। बताते हैं ‘मैं आगरा का रहने वाला हूं,आगरा में कोरोना के हालात बहुत खराब हैं। यहां नदी किनारे काम चल रहा है लेकिन गांव कैथी और बनारस मे रेड जोन में हैं इसलिए हम चार लोग नदी किनारे इस सुनसान में ही रहते हैं। फूस की झोंपड़ी बनाई है, चूल्हे पर खाना पीना बना लेते हैं।’
संजीत का कहना है कि उनकी मां का कहना है कि वे लोग नदी किनारे किसी अकेली सी जगह चले जाएं, इसलिए कोरोना से बचने के लिए इन्हें जहां ठीक लगा वे लोग वहां रह रहे हैं। संजीत कहते हैं कि हम लोग यहां गांव वालों को आने भी नहीं देते हैं।
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