कहानी - महाभारत में एकलव्य की कथा हमें अनुशासन का महत्व समझाती है। एक दिन एकलव्य कौरव और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुंचा और बोला, 'गुरुदेव मैं भी धनुर्विद्या सीखना चाहता हूं, कृपया मुझे भी अपना शिष्य बना लें।'
द्रोणाचार्य ने कहा, 'मैं सिर्फ राजकुमारों को ही धनुर्विद्या का ज्ञान देता हूं। इसीलिए तुम्हें अपना शिष्य नहीं बना सकता।'
एकलव्य ने उसी समय मन से द्रोणाचार्य को अपना गुरु मान लिया। वह जंगल में अपने क्षेत्र में पहुंचा और वहां मिट्टी से द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई। एकलव्य रोज गुरु की मूर्ति के सामने अनुशासन में रहकर धनुष-बाण चलाने का अभ्यास करने लगा।
महाभारत में एकलव्य की इस कथा को नियम के सूत्र से जोड़ा गया है। अगर कोई व्यक्ति नियम, अनुशासन और समर्पण के साथ काम करता है तो क्या परिणाम मिल सकता है, ये हम इस कथा से समझ सकते हैं।
नियमित रूप से अभ्यास करते रहने से एकलव्य बाण छोड़ने और लौटाने की विद्या में दक्ष हो गया। एक बार एकलव्य अभ्यास कर रहा था, तब एक कुत्ता वहां आकर भौंकने लगा। इस कारण एकलव्य के अभ्यास में दिक्कत होने लगी। तब उसने एक साथ सात बाण छोड़कर कुत्ते का मुंह बंद कर दिया।
उस समय कौरव और पांडव पुत्र द्रोणाचार्य के साथ जंगल में घूम रहे थे। वह कुत्ता इन लोगों के सामने पहुंचा तो द्रोणाचार्य और सभी राजकुमार उसे देखकर हैरान थे। कुत्ते के मुंह में एक साथ इतने सारे बाण बहुत ही कुशलता के साथ मारे गए थे, उसके मुंह से खून की एक बूंद तक नहीं निकली थी।
द्रोणाचार्य और राजकुमार कुत्ते के मुंह में बाण मारने वाले धनुर्धर को खोजने लगे। कुछ देर बाद खोजते हुए सभी लोग एकलव्य के पास पहुंच गए। एकलव्य ने द्रोणाचार्य को प्रणाम किया और बताया कि मैं आपका ही शिष्य हूं। द्रोणाचार्य ये सुनकर चौंक गए।
तब गुरु ने अपने सभी शिष्यों से कहा, 'एकलव्य आज इतना दक्ष हुआ है तो ये उसके अनुशासन, नियम और समर्पण का प्रभाव है। शिक्षा के क्षेत्र में ये तीनों बातें बहुत जरूरी हैं।'
सीख - एकलव्य के पास गुरु द्रोण उपस्थित नहीं थे, लेकिन वह गुरु की अनुपस्थिति में अपने अनुशासन और लगातार अभ्यास से धनुर्विद्या में दक्ष हो गया। यही बात हमें भी ध्यान रखनी चाहिए। अगर हम कुछ सीखना चाहते हैं तो अनुशासन, नियम और समर्पण के साथ लगातार अभ्यास करना चाहिए।
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